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पुस में नूतन बर्ष

 पुस में नूतन वर्ष मनाना,  फिरंगी का वार हैं ये।  पश्चिम को पुरब में लाने,  का समझो हथियार हैं ये।  तुम कहते हो स्वागत कर ले पर हम पे धिक्कार हैं ये।  गोरो का त्योहार मनाना,  खूनी का सत्कार हैं ये।  भूल गये उनकी बर्बरता,  भूल गये क्यों फांसी को।  भूल गये क्यों रणचंडी को,  खोयी जिसने झाँसी को।  मूढ़ हैं जो पश्चिम में डूब के  भूले, मथुरा, कासी को।  हम हैं गदर के भटके राही,  उचित नहीं व्यवहार हैं ये।  तुम चाहो तो रंग बदल लो,  मेरा सच्चा प्यार हैं ये।  पुस में नूतन वर्ष मनाना,  मुझको न स्वीकार हैं ये।  फिरंगी नव वर्ष मनाना,  खूनी का सत्कार हैं ये।।    कवि:- अनिल कुमार मंडल

पर्व आज़ादी का

  हैं पर्व अज़ादी का, हर घर में तिरंगा हो। २ उत्तर का हिम चोटी,२ उदयाचल,बंगा हो। हैं पर्व अज़ादी का, चहु और तिरंगा हो।  सौराष्ट्र हो पश्चिम का,२ या जलधि तरंगा हो हैं पर्व अज़ादी का,हर दिशा तिरंगा हो। (पंजाब हो द्रविड़ हो, पुरब का कलिंगा हो। हैं पर्व आज़ादी का हर घर में तिरंगा हो। दक्षिण का दक्कन हो २ या कंचनजंघा हो। हैं पर्व अज़ादी का, हर दिशा तिरंगा हो। ) अंबर हो धरती हो,२ या उड़ती पतंगा हो है पर्व आज़ादी का , इस रंग में रंगा हो हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। सब पाये भात यहाँ,२ हर तन पे अंगा हो। हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। जीते जी छत सबको,२ मरने पे गंगा हो। हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। आपस में प्रीत रहे,२ झगडा न दंगा हो। हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। न जाति का हो च्चकर,२ न धर्म का पंगा हो हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। सच की हो जीत यहाँ,बस न्याय न धंधा हो हैं पर्व आज़ादी का हर घर में तिरंगा हो। सर्वे शन्तु सुखिनः, २ हर इंसा चंगा हो। हैं पर्व अज़ादी का,हर घर में तिरंगा हो। २     ...

देख तेरे संसार की हालत

  देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान। कितना बदल गया युवान,२ भूख न बदली,प्यास न बदला, बदल गया जलपान, कितना बदल गया युवान २ पिज़्ज़ा,बर्गर,ठंढा पेय पी, बेच रहा ईमान। कितना बदल गया युवान २ अंग्रेज गया न गई अंग्रेजी, खाना सिखा गये काट कलेजी। कही मोबाइल हैं,कही पे टी वी, लड़ना सिख गई हर बीबी। आज बेटी से बाप दुःखी, करते जो कन्यादान। कितना बदल गया युवान,२ पापा की ये परियां देखो, पहन रही हथकरिया देखो। हाथ में पोवा लेकर डोले, अंग्रेजी में गाली बोले। लोक,लाज सब छोड़ चुकी, पापा इनसे परेशान कितना बदल गया युवान २ लड़के से भी दुःखी हैं पापा, घर में पड़े पुलिसिया छापा, देश धर्म की बात न करते, आय्याशी के गर्त में पड़ते ड्रग्स और कोकीन ये लेकर, बाँटते सबको ज्ञान कितना बदल गया युवान २

जग में आने से पहले

  जग में आने से पहले सताई गई, कोख़ में टेटुऐ को दबाई गई मुझको मेरी खता का पता ही नहीं, कैचिया मेरे उपर चलाई गई। जग ने कहकर के अबला पुकारा मुझे, बोझ माना गटर में बहाई गई, मैं तो बेटी थी मुझमें सृजन थी बसी कुल का दीपक न थी सो बुझाई गई मेरी लोहित ही जब मेरे कातिल बने झूठी शोहरत में ये सब कराई गई जग में आने से पहले सताई गई लड़के उद्धार करते हैं एक कूल का मैं थी दो कूल की दीपक बुझाई गई जग में आने से पहले सताई गई, कोख़ में टेटुऐ को दबाई गई।   कवि:-अनिल कुमार अदल

इतना भी आसान नहीं

भारत  देश  में  रेल चलना, इतना भी  आसान नहीं रात- रात  भर आँखे फोडू, मिलती हैं  पहचान नहीं कई  परीक्षा,और  परीक्षण देकर  इसको  पाता  हूँ दिनचर्या  सब  उल्टी सीधी  रोग  शरीर  में लाता हूँ लघुशंका, बड़ीशंका  रोके  इसमें  तो  सम्मान  नहीं भारत  देश  में  रेल  चलना, इतना भी आसान नहीं रात - रात भर  आँखे फोडू, पाता इसका  दाम नहीं पढ़ा लिखा  मुझे  रेल न माने, उत्तरदायी सब दे डारे घर में  हम अतिथि  बन बैठे, रिश्तेदार कहे हम ऐठे कितनो से  हुई  तू- तू म्ये म्ये सरकारी मेहमान  नहीं भारत  देश  में  रेल चलना इतना  भी आसान  नहीं रात - रात  भर आँखे फोडू, मिलती हैं  पहचान नहीं कभी- कभी दुविधा में रहते,खा ले या भूखे सो जाए रोजी  रोटी  यही  हमारी, इससे  दूर  कहाँ हम  जाए पानी पी भूखे सो जाना, क्या  तन  का अपमान नहीं भारत  देश  में  रेल  चलना...

आफताब सा जलना होगा

अपनी नस्ल बचाने खातिर , आफताब सा जलना होगा मस्त पवन की रोटी खाकर, काँटों  पे अब  चलना होगा सोंचो,देखो, चिंतन  कर लो, मैं   क्यो   ऐसा   कहता   हूँ मानसिक गुलामी मे हैं भारत, लेकिन  मे  नही  सहता  हूँ एक मेरी मसबारा मानकर, इस   बेड़ी   को  तोड़ो  तुम जो  भी हो  अवरोध राह मे, उसको  भी   न   छोड़ो  तुम जुगनूओ  ने  भ्रमित किया हैं, आफताब सा जलना होगा संग ज्ञान का  दीप जलाकर सच को  बाहर  करना  होगा कुछ  बधिर भी सुनेगा हमको शंखनाद  अब  करना  होगा मानव  तन  में  जन्म लिया तो नेक  कर्म  कुछ  करना होगा सौ  तारों  के  बीच  हमे  अब आफताब  सा  जलना  होगा भय  का  जो  बाजार  खडा हैं हमको  इससे  लड़ना  होगा अपनी  नस्ल  बचाने  खातिर , आफताब  सा  जलना  होगा म...

साल बीत गया इक्कीस वाला

 साल  बीत  गया २१ वाला, २२  में  मेरा  घर  ला दो मैं हूँ लड़की टिक टोक वाली,नये दौर का वर ला दो।  दादा बाली बाग बेच दो, या फिर मुझको कर ला दो।  तुम क्या जानो नये दौर का वर कितना प्यारा होता।  माँ, बापू  को  साथ  न  रखे, टाॅमी  सा न्यारा होता।  चिड़िया  के जगने से पहले, बिस्तर  से उठ जाता वो दूध भी लाता चाय बनाता,चाय पिला कहे सो जाओ बिन कहे  झाड़ू, पौछा,करता बर्तन  खुद ही धो लेता।  भीगी बिल्ली बन जाता,आँखों में जरा असर ला दो।  ऐसा  एक जीवंत खिलौना, बापू  सुनो मगर ला  दो।  मैं हूँ लड़की टिक टोक वाली,नये दौर का वर ला दो।  साल  बीत  गया २१ वाला, २२  में  मेरा  घर  ला दो दादा बाली बाग बेच दो, या फिर मुझको कर ला दो।  हाई हिल की सैंडिल पहनू या फटी जीन्स बजारो में।  मुझको  न  वो  रोके  टोके  मैं  रहू  लाख  हज़ारो  में।  माँग मैं अपनी सुनी रखू  या मैं  तिलकित भाल...

दो जिस्म एक जान

अधरों को अधरों पर रखकर तन की अगन बुझाने दो।  दो जिस्म एक जान हुए बिन,तुम  मुझको  न जाने दो।  घडी  दो  घडी  पास आ मेरे, सांसों  को  टकराने  दो।  हाथों  का करतब  दिखलाऊ, अंग अंग तक जाने दो। केशर वाला  दूध  पिलाया, को नस -नस  में  छाने दो तुमको  बाहों  में  भर लू और  थोड़ा  मुझे सताने  दो तेरी  जवानी  बंद  कली  सी,पुष्प  इसे बन  जाने  दो।  मैं अलि हूँ मकरंद का प्यास,जी भर कर रस पाने दो। कामसूत्र  के  ग्रंथो  वाला, एक परिमेय  तो  पाने  दो।  लिप्सा  हो  दोनों  की  पूरी, ऐसा  कुछ कर  जाने दो।  एक  दूजे  को सींचे  हम तुम, बूँदों  को  बह जाने दो।  स्पंदन हो  चरम  पे और, काया  को  स्थूलता  पाने दो इसी पल को कहते हैं समाधि,क्षण भर को पा जाने दो।  अधरों  को अधरों पर रखकर,तन की अगन बुझाने दो दो  जिस्म  ए...

मुक्तक

  जिनको मैंने अपना माना वो तो संगदिल वाले थे। तन से गोरे,चिकने थे पर मन से बिल्कुल काले थे। कुछ दिन संग गुजरा हमने फिर जाकर ये जाना हैं, मैं तो ठहरा कीट- पतंगा, वो मकड़ी के जाले थे। २ दिलों जान से चाहा जिसको,उसने ही दिल तोड़ दिया। जीवन मेरा सरल,सुलभ था,उसने ही झकझोर दिया। उसके बिन जब जीना सिखा,अब उसकी दरकार नहीं उसके घरवाले ने आकर,फिर से रिश्ता जोड़ दिया। रिश्ता जोड़ा दिल नहीं जोड़ा,एक गाँठ जो बांकी थी, रिश्ता टूटने से पहले हमने भी, माँगी माफी थी। पर उसने दुत्कार दिया था,जैसे राह का कुत्ता में जीवन उनके संग चला,जो बीती वो बस झाँकी थी

गीत आज़ादी का

शिक्षा हुई मैकाले वाली,  मनोरंजन बर्बादी का।   ऐसे भारत देश में कैसे,   गाये गीत आजादी का।  भाषा हो गई इंग्लिश,विंग्लिश  भूषा रहा न खादी का।   खान पान हुआ पिज्जा,बर्गर  नुक्सा बचा न दादी का।   रीत- रिवाज भी बदल गये,   आनंद कहाँ अब शादी का।   ऐसे भारत देश में कैसे,   गाये गीत आज़ादी का।   सुबह न मिलती राग भैरवी,   शाम न किस्सा दादी का।   बहु,बेटी पे नशा चढ़ा हैं,   फिरंगी शहजादी का।   फटी जीन्स में युवा थिरकते,  ज्ञान बाटते गांधी का,  माता,पिता को चिथड़े न दे बाँटे कंब्बल चाँदी का  पंचभुत सब मैली हो गई   बुरा हाल हैं वादी का।   ऐसे भारत देश में कैसे,   गाये गीत आज़ादी का।              अनिल कुमार मंडल