ये कैसा दस्तूर
गोरो के दस्तूर से देखो,बढ़ गया यहां फितूर है।
मिट्टी से जो सोना गढ़ता,क्यों इतना मजबूर है।
अन्न सभी को चाहिए जग में,बिन मेहनत मिल जाए पग में
जो जितना धन लेकर बैठा, उतना ही मगरूर है।
ये कैसा दस्तूर है भाई,ये कैसा दस्तूर है।
उनका हित जो दिल्ली करता, क्यों बेचारा भूखा मरता।
कृषक तो केवल अन्न उपजाता,भाव नहीं ये तय कर पाता।
नए दौर के कृषक तभी तो, भागता इससे दूर है ।
अन्य का भाव जो तय करता ,सत्ता की नशा में चूर है
ये कैसा दस्तूर है भाई ,ये कैसा दस्तूर है।
अनिल कुमार मंडल
लोको पायलट/गाजियाबाद
9205028055
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