दस्ता कहते-कहते

 बड़े शौक से सुन रहा था जमाना।

 तुम ही सो गए दास्तां कहते-कहते।

 पतवार भी दी,मंजिल भी बताया,

भंवर में फंसे हम कहां बहते बहते।

जो महफ़िल में बैठे सभी हैं निकम्मे,

तन्हा कैसे चल दे जो संग उनके रहते।

अच्छा हो बुरा हो ये रब की है मर्जी ,

अकड़ में पड़े थे ऐसा हम थे कहते।

समय जो फिरा है तो हम भी हैं चिंतित,

उसी ने ठगा है जो संग मेरे रहते। 

घाव ऐसा दिया है कहां तक सहे हम,

दर्द की इंतहा हो गई सहते-सहते।

नाकामी के दर पे खड़े हो गए जब,

बड़ों की बातों को मिथ्या कहते-कहते।

जीवन की राहें कठिन लग रही है।

मंजिल दिख रही है मगर ढहते-ढहते।

बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, 

बस हम ही ना समझे,जैसा वो थे कहते।

पतवार भी दी मंजिल भी बताया,

भंवर में फंसे हम कहां बहते-बहते। 

जो तुम सो गए हो,समय थोड़ा बीता,

हीरा हमनें खोया, पत्थर हम समझते।२


      अनिल कुमार मंडल

लोको पायलट/ग़ाज़ियाबाद

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