सच्चा था वो जमाना
दिखावे के खातिर हमको,क्या-क्या पड़ा गवाना।
झूठी लगे ये दुनिया,सच्चा था वो जमाना ।
मोबाइल, टीवी घर-घर बचपन हुआ बेगाना।
पता जो कोई पूछें, घर तक था लेके जाना।
मिट्टी का घर था पहले, खपरैल कुछ ठिकाना।
गिल्ली की तेज से वो खपरैल टूट जाना।
जब खेलते थे इसको, गाली भी पड़ता खाना।
कागज की अपनी कश्ती बारिश में था नहाना।
कुछ मित्र थे अजूबे, रिश्ता बड़ा पुराना।
सुख-दुःख में साथ रहते,करते नहीं बहाना।
बागों में घूमा करते,श्यामा के संग था गाना।
घंटों थे खेला करते ,अपना कई ठिकाना।
चुरा के फल थे खाते, छुप जाते थे तहखाना।
कागज की अपनी कश्ती,बारिश में था नहाना।
पैसे में जब से उलझे, बस रह गया कमाना।
वो खेत हमसे रूठा ,खलिहान है बेगाना।
शहर में आ गए हम,अब चाहता हूँ जाना।
कोई तो हमको ला दे गुजरा हुआ ज़माना।
झूठी लगे ये दुनिया, सच्चा था वो जमाना।
दिखावे के खातिर हमको क्या क्या पड़ा गवाना।
झूठी लगे ये दुनिया, सच्चा था वो जमाना।
अनिल कुमार मंडल
रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद
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