वैदिक थी माता की रसोई

वैदिक थी माता की रसोई, पवन किरण से न्यारी।

माँ के हाथ की रोटी हो और, हांडी की हो तरकारी।

चूल्हे की सौंधी खुशबू,जो भूख बढ़ाये भारी।

भाव जो खाने में भरती थी, स्वाद थी बहुत निराली।

खा के तन-मन दमके मेरा, कलम हुई हैं कटारी।

विद्यावती या पदमावती माँ सबने पुत निखारी।

पौष्टिक भोजन देती माता, पुत्र हुए क्रांतिकारी।

जैसा अन्न हो वैसा ही मन, गीता में कहे मुरारी।

तभी तो भारत विश्व गुरु था,आये थे कई बलिहारी।


         अनिल कुमार मंडल

     रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद


माँ शारदे को नमन 🙏🙏🙏🙏🙏उदय कमल सहित्य संगम के मंच को नमन🙏🙏🙏🙏🙏

प्रभात लेखन:-भाग 11

दिनांक:-१/१०/२०२०

दिन:- गुरुवार


कही दहेज की लुट हैं,कही रतिपति है श्राप।

नारी हर दिन जल रही, नर कर रहा हैं पाप।

लाडो कर में शस्त्र संभालो,बहुत सहा संताप।

तेरे  कोख  से आया  हैं, तेरा  ही अभिशाप।


       अनिल कुमार मंडल

     रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद

Comments

Popular posts from this blog

पुस में नूतन बर्ष

पर्व आज़ादी का

देख तेरे संसार की हालत