शहर का चिकचिक

 शहर का चिक-चिक छोड़ बलमुआ, 

चलो चले अब गांव रे ।

वहीं पे अपना बचपन ढूंढे, 

पेड़ो की थी छांव रे।

शहर में ऐसे उलझे हैं,

पायल में जैसे पाव रे।

शहर का चिक-चिक छोर बलमुआ। 

चलो चले हम गांव रे।

गिल्ली,डंडा कौड़ी भी थी,

कागज की थी नाव रे ।

शहरी जीवन बहुत कठिन हैं, 

लोगों नहीं लगाव रे।

शहर चिक-चिक छोड़ बलमुआ।

चलो चले हम गांव रे। 

कागज के पीछे भाग रहे हैं,

लगी है जैसे दांव रे ।

प्रेम से लथपथ जीवन था वो, 

ढूंढ रहे वही गांव रे।

शहर का चिक-चिक छोड़ बलमुआ। 

चलो चले हम गांव रे ।

चूल्हे पर रोटी बनती,

माता भरती थी भाव रे।

शुद्ध पानी थी, शुद्ध हवा 

हर दिशा में था, सदभाव रे! 

 शहर का चिक-चिक छोड़ बलमुआ।

चलो चले हम गांव रे ।


              अनिल कुमार मंडल 

          रेल चालक /गाजियाबाद

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