हुस्न का असीर

 मैं तो उनके हुस्न का असीर बन गया।

नजरें मिला के कह गई,तकदीर बन गया।

महफ़िल में सरे आम वो ऐलान कर गई,

की मैं तो उनके अब्बा की जागीर बन गया।

चाहत भी मेरी उनसे लगातार बढ़ गई।

प्यादा मैं मोहब्ब्त का अब वजीर बन गया।

उसकी अदा को देखते ही में तो लुट गया

बिखरी थीं उनकी जुल्फ़े जो जंजीर बन गया।

मुफलिस में जैसे-तैसे समय बीत रहा था,

पाकर उसे तो आज मैं अमीर बन गया।

वो बेरुखी से तन्हा मुझे छोड़ क्या गई।

नवाब था गलियों का मैं फकीर बन गया।

मुझको खबर न थी की जमाना बदल गया।

दिल तोड़ना ही हुस्न की तासीर बन गया।

            अनिल कुमार मंडल

        रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद

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