आदमी

बीमारी के भय से इतना डर गया हैं आदमी।
मौत से पहले ही देखो मर गया हैं आदमी।
विज्ञान की छाया में क्या-क्या कर गया हैं आदमी।
अर्थ की दुनिया बना सिहर गया हैं आदमी।
कसमें खाता, मन बनाता, ठान अक्सर घर से जाता,
पर जहाँ की शोर सुन बिगड़ गया हैं आदमी।
तन का सौदा,मन का सौदा कर रहा जीवन का सौदा,
पेट के खातिर यहाँ सब कर रहा हैं आदमी।
दुनिया की रंगीनियों में, यू भटक कर खो गया।
नैतिकता का मोल भी अब कर गया हैं आदमी।
धन कमाना रह गया, अब मोक्ष की न फिक्र है,
चरित्र और व्यवहार से भी मर गया हैं आदमी।
पेट में जब आग हो,तो पाप क्या और पुण्य क्या,
भैरव का भोग पी रहा ,सुधर गया है आदमी।
सत्य और नेकी करूँगा, ठानता हैं आदमी।
पर पाप की गठरी सजाकर भर गया हैं आदमी।
मौत एक अटल सत्य हैं, जनता हैं आदमी।
जीता ऐसे हैं की ये अमर हुआ है आदमी।
बीमारी के भय से इतना डर गया हैं आदमी।
मौत से पहले ही देखो मर गया हैं आदमी।

                   अनिल कुमार मंडल
                रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद







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