रोटी, कपड़ा और मकान

 दौलत की लिप्सा में उलझा,नये दौर का हर इंसान।
जीने को बस चाही जग में, रोटी कपड़ा और मकान।
पंचभूत जो जीवन दाता,इनका भी कर के सम्मान।
दौलत के लिए मेहनत करते,आता नहीं जो वक़्त पे काम।
दौलत की लिप्सा में उलझा,नये दौर का हर इंसान।
जीने को बस चाही जग में रोटी,कपड़ा और मकान।
एक नही जो मरता जग में,कर्म से पाया जो सम्मान।
फिर भी मानव अकड़ रहा हैं,
भर के देखो कई गोदाम।
दौलत की लिप्सा में उलझा,नये दौर का हर इंसान।
अंत समय जब आता उनका,याद करें सारे भगवान।
भूल चुका हैं मानव कब से,वो खुद हैं ईश्वर संतान।
जीने का उद्देश्य न जाने, इस तन का क्या करें नादान।
दौलत की लिप्सा में उलझा,नये दौर का हर इंसान।
                                    अनिल कुमार मंडल
                                  रेल चालक/ग़ाज़ियाबाद

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