मायके की वादी
चलो सजन मुझे ले के चलो तुम,
मायके की उस वादी में।
जहाँ पे मेरे बाबा बसते ,
धोती कुर्ता खादी में।
चलो सजन मुझे ले के चलो तुम,
मायके की उस वादी में।
वर्षो पहले जहां लड़े,
गुड्डे की झूठी शादी में।
पल में कुट्टा,पल में अब्बा,
बचपन वाली आदी में।
नर नारी में भेद नहीं थी,
बच्चो की फुलवारी में।
भैया के संग दौड़ लगाते,
जेठ की जलती आंधी में।
चलो सजन मुझे ले के चलो तुम,
मायके की उस वादी में।
गांव का बरगद उसपे झूला,
दादी का नुक्सा व्याधि में।
ना मोबाइल की चकाचौंध,
खुशियां थी कम आबादी में।
अब धन हैं और बंगला गाड़ी,
चैन नहीं आजादी में।
रिश्ते झूठे,अर्थ की दुनिया,
प्रीत नही इस वादी में।
चलो सजन मुझे ले के चलो तुम,
मायके की उस वादी में।
प्रेम पाश में गांव बंधा था,
दिख जाता हर शादी में।
मान, मनुहार प्रेम कलह बीच,
कटेगा वक्त समाधि में।
चलो सजन एक बार घूमा दो,
मायके की उस वादी में।
अनिल कुमार मंडल रेल चालक/ ग़ाज़ियाबाद
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