मुक्तक

 

जिनको मैंने अपना माना वो तो संगदिल वाले थे।
तन से गोरे,चिकने थे पर मन से बिल्कुल काले थे।
कुछ दिन संग गुजरा हमने फिर जाकर ये जाना हैं,
मैं तो ठहरा कीट- पतंगा, वो मकड़ी के जाले थे।

दिलों जान से चाहा जिसको,उसने ही दिल तोड़ दिया।
जीवन मेरा सरल,सुलभ था,उसने ही झकझोर दिया।
उसके बिन जब जीना सिखा,अब उसकी दरकार नहीं
उसके घरवाले ने आकर,फिर से रिश्ता जोड़ दिया।
रिश्ता जोड़ा दिल नहीं जोड़ा,एक गाँठ जो बांकी थी,
रिश्ता टूटने से पहले हमने भी, माँगी माफी थी।
पर उसने दुत्कार दिया था,जैसे राह का कुत्ता में
जीवन उनके संग चला,जो बीती वो बस झाँकी थी


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